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सोमवार, 10 सितंबर 2012

बेहमई का अर्जुन

रामकरन का बेहमई गांव स्थित घर।
rastrapati se arjun award leta ramkaran

















यूपी का बीहड़ी गांव बेहमई 31 साल बाद फिर सुर्खियों में है। डकैत फूलनदेवी की करतूत से विश्वपटल पर पहली बार आए इस गांव की कालिमा को गांव के सपूत के कारनामे ने धो डाला है। यहां के रामकरन सिंह को एथलीट के क्षेत्र में उत्कृष्ट प्रदर्शन के लिए अजुर्न अवार्ड से पुरस्कृत किया गया है। रामकरन की उपलब्धि इस मायने में बेमिसाल है कि भूख और गरीबी के साथ वह जिंदगी भर एक कालिमा से भी लड़ा है। रामकरन आंखों की रोशनी गवां चुका है।
कानपुर देहात जिला मुख्यालय से 45 किलोमीटर दक्षिण पश्चिम दिशा में राजपुर थाना क्षेत्र का ठेठ बीहड़ी गांव है बेहमई। घनघोर गरीबी, अशिक्षा और दहशत यहां की नीयत है। 14 फरवरी 1981 को इसी गांव में फूलनदेवी ने 22 ठाकुरों को गोलियों से भून दिया था। 1990 में इस गांव के वीरेंद्र सिंह और कृष्णा सिंह के यहां रामकरन ने जन्म लिया तब बेहमई कांड को नौ साल हो गए थे। डकैतों की क्रूरता में जीते इस गांव का भविष्य अंधेरे में था। मगर एक अंधेरा और था जो रामकरन की राह में उसका इंतजार कर रहा था। मात्र चार साल की उम्र में एक हादसे ने रामकरन के जीवन में अंधेरा फैला दिया। 1994 की एक सुबह दीपावली के आसपास एक पटाखा चलाते समय रामकरन की आंखों की रोशनी सदा के लिए चली गई। अब इस कालिमा से ही उसे जिंदगी भर जूझना था। इस हादसे में रामकरन का भाई रामनरेश भी घायल हो गया। रामकरन रोजमर्रा के साधारण काम के लिए भी दूसरों पर निर्भर था, मगर अंदर वह इस साधारणता को असाधारण में बदलने को जूझ रहा था। इस हालत में भी वह भाई के साथ गांव के स्कूल जाता रहा। दो साल बाद उसने दिल्ली के अंध विद्यालय में जाने की जिद पकड़ ली। किसी तरह दो जून रोटी खाने वाले परिवार के लिए यह पहाड़ खोदना था, मगर रामकरन के परिवार ने हार नहीं मानी। महज आठ वर्ष की उम्र में वह दिल्ली के किंगसेव कैंप अंधविद्यालय में प्रवेश को जूझ रहा था। इस विद्यालय में प्रवेश पाने में ही उसे दो साल लग गए। मगर उसने दिल्ली का दामन नहीं छोड़ा। 2006 का साल रामकरन के जीवन में सबेरा लेकर आया। उसने द्लिी की क्रॉस कंट्री साल्वन मैराथन में भाग लेने का फैसला किया। इस मैराथन में वह प्रथम आया। यहीं से उसने एथलीट बनने की ठानी। वह भी अकेले अपने दम पर। 2006 से 2009 तक वह तीन बार पैराएथलीट आयोजन में नेशनल चैंपियन चुना गया। इसके बाद यूएसए  में 2009 में हुए यूथ चैंपियनशिप के लिए वह चयनित हुए लेकिन उसमें खेल नहीं सके। 2010 में चीन में होने वाले एशियन गेम्स में सिल्वर मैडल हासिल किया और 2011में तुर्की में हुई वर्ल्ड चैंपियनशिप में 10 और 5 किलोमीटर दौड़ में दो कांस्य हासिल किए। 2012 में पैराओलंपिक क्वालीफाईंग के लिए मलेशिया में हुई चैंपियनशिप में उनके हिस्से में दो गोल्ड आए। उन्हें यहां नया एशियन रिकार्ड भी बनाया। 800 मीटर की दूरी उन्होंने रिकार्ड 2.3 मिनट में पूरी की। मगर इस बार भी वह आईसीसी लाइसेंस न मिल पाने के कारण पैराओलंपिक में भाग नहीं ले सके। मगर उनके प्रदर्शन को देखते हुए रामकरन को अर्जुन अवार्ड से पुरस्कृत किया गया है।
रामकरन सिंह ने कल्पतरु को बताया कि वह रोज सुबह-शाम दो-दो घंटे अभ्यास करते हैं। वह सामान्य लोगों के साथ अभ्यास में भाग लेते हैं। वह अफसोस के साथ कहते हैं कि सरकार से उन्हें कोई सुविधा कभी नहीं मिली। वह आज भी अभ्यास के लिए 18 किलोमीटर दूर नेहरु स्टेडियम दिल्ली परिवहन की बसों से जाना पड़ता है। अपनी उपलब्धि से खुश रामकरन कहते हैं कि उनके माता-पिता इससे खुश हैं लेकिन अशिक्षा के कारण वह समझ ही नहीं पा रहे कि उनके बेटे ने क्या हासिल किया है। रामकरन का गांव आज उनकी इस उपलब्धि से फूला नहीं समाता। उनके पिता कहते हैं कि रामकरन की उपलब्धि इसलिए और बड़ी है कि वह जिंदगी भर मुसीबत और गरीबी से जूझा है। रामकरन की छोटी बहन आसमा इस उपलब्धि से बेहद खुश है। रामकरन पैराओलंपिक में पदक पाने के साथ एक अच्छी नौकरी की उम्मीद लगाए बैठे हैं ताकि गरीबी और अशिक्षा में जी रहे उनके घर की दशा और दिशा दोनों बदल सकें।

सफलता का सफर
2006- दिल्ली की साल्वन मैराथन का विजेता
2006-09- तीन बार पैरानेशनल चैंपियनशिप जीती
2009- यूएसए में होने वाली यूथ चैंपियनशिप के लिए चयनित
2010 चीन में एशियन गेम्स में सिल्वर मैडल
2011में तुर्की में हुई वर्ल्ड चैंपियनशिप में 10 और 5 किलोमीटर दौड़ में दो कांस्य।
 2012 पैराओलंपिक क्वालीफाईंग के लिए मलेशिया में हुई चैंपियनशिप में दो गोल्ड।
800 मीटर दौड़ में 2.3 मिनट लेकर एशियन रिकार्ड अपने नाम किया।

रामकरन से दो टूक बात

अफसोस की राज्य सरकार ने कुछ नहीं किया
आगरा। अपने दम पर उपलब्धि की इबारत लिखने वाले रामकरन सिंह को अफसोस है कि जिस राज्य के लिए उसने यह सब किया उसने उसकी उपलब्धि पर कोई ध्यान ही नहीं दिया है। वह प्रदेश के मुखिया अखिलेश यादव को तेजतर्रार तो मानता है लेकिन उसे पता नहीं कि उनसे मुलाकात कैसे की जा सके। इसके साथ ही वह अपने बीहड़ी गांव की हालात और 31 साल पहले हुए अन्याय को लेकर भी व्यथित है लेकिन उसका लक्ष्य साफ है। पैराओलंपिक में देश के लिए पदक जीतना। उनसे हुई बातचीत।
- अपनी उपलब्धि के लिए किसे धन्यवाद देते हैं।
- अपने माता-पिता और बड़े भाई को, जिन्होंने कभी भी उसका साथ नहीं छोड़ा। खुद आधी रोटी खाकर मुझे दिल्ली में रहने की व्यवस्था की। साथ ही कोच सतपाल सिंह और हॉस्टल फॉर कॉलेज गोइंग ब्लाइंड स्कूल किंगसेव कैंप, तिलक नगर दिल्ली के उन साथियों को जिन्होंने हमेशा हौंसला बढ़ाया।
- और सरकार के बारे में।
- केंद्र और राज्य सरकार से उन्हें कभी कोई सहायता नहीं मिली। यहां तक कि पहली मैराथन और तीन बार नेशनल चैंपियनशिप जीतने के बाद भी किसी ने नहीं पूछा। बस यह अर्जुन अवार्ड मिला है।
- कभी किसी से सहायता मांगी।
- हमारा परिवार गरीबी रेखा में आता है। शुरू में खेल प्रतियोगिताओं में भाग लेने तक के पैसे नहीं होते थे। ऐसे में हमने अपने क्षेत्र के विधायक (शायद उनका नाम मिथलेश था) से संपर्क किया अपनी समस्या रखी, मगर कोई मदद नहीं मिल सकी। पूर्व मुख्यमंत्री मायावती के पीए से फोन पर बात की, मेल भी भेजी मगर किसी ने मिलने तक का समय नहीं दिया। ऐसे में भला हम कर भी क्या सकते थे।
- अपने गांव बेहमई के लोगों के लिए कोई संदेश।
अपने दुर्भाग्य को मेहनत से ही बदला जा सकता है, मैं गांव वालों से बस यही कह सकता हूं। मेरे गांव में आज तक बिजली नहीं पहुंची, संपर्क मार्ग ठीक नहीं है। स्कूल भी ठीक नहीं बना। अगर में कुछ कर सका तो गांव में स्कूल और बिजली के लिए सरकार से पैरवी करूंगा। साथ ही चाहूंगा कि हमारे गांव की लड़कियां खूब पढ़ें।

आगे क्या करने का विचार है।
- मेरा सपना देश के लिए पैराओलंपिक में स्वर्ण लाने का है। इसके लिए मैं जमकर मेहनत कर रहा हूं। रोज सुबह चार बजे जागता हूं और हॉस्टल से 18 किलोमीटर दूर नेहरू स्टेडियम जाता हूं। यहां सामान्य लोगों के साथ दो घंटे तक नियमित अभ्यास करता हूं। शाम को भी दो घंटे मेहनत करता हूं। अफसोस यह है कि आज भी मुझे इसके लिए कोई सहायता नहीं मिल रही मगर मेरा लक्ष्य साफ है।


दुर्भाग्य से हर बार जंग
रामकरन के दुर्भाग्य ने उसे हर बार छला। मगर वह हार मानने वाला जीव नहीं। बचपन के दुर्भाग्य से लड़कर जब ट्रैक की राह पकड़ी तो पहली बार यही दुर्भाग्य फिर सामने आया। 2009 में यूएसए में होने वाली वर्ल्ड चैंपियनशिप के लिए रामकरन चयनित हो गए। मगर जब जाने की बारी आई तो पैर में फ्रेक्चर हो गया। 2012 में पैराओलंपिक के लिए क्वालीफाई किया लेकिन प्रबंधन की लापरवाही कि आईसीसी लाइसेंस ही नहीं बन पाया, नतीजा वह फिर जाने से रह गए। रामकरन के पिता वीरेंद्र कहते हैं कि बड़ी मुश्किल से उसे पाला है। छुटपन से ही घर से दूर भेजना पड़ा और फिर खुद भूखे रहे। रामकरन की जिंदगी बन जाए इसके लिए पूरा परिवार दुर्भाग्य से लड़ता रहा।
भाई रामनरेश बताते हैं कि जब पहली बार रामकरन को छोड़ने दिल्ली गए तो उनकी आंखों में आंसू भर आए मगर करन अपनी धुन का पक्का निकला। उसने दिल्ली में ही रहने की ठानी। जाति प्रमाणपत्र न होने से किंगसेव कैंप अंध स्कूल में प्रवेश नहीं मिल पाया। ऐसे में लाजपत नगर स्थित प्राइवेट अंधविद्यालय में ही प्रवेश लेना पड़ा। दो साल बाद किंगसेव कैंप में प्रवेश का मौका मिला।
बेहमई गांव में रामकरन का परिवार।